29 नव॰ 2016

कातर कतारें

जब से देश में नोटबंदी हो गई
सियासत और भी गंदी हो गई

हल्की हल्की सांसे ले रही है इंसानियत
सुना है मजदूर की आवाज मंदी हो गई

लंम्बी लंम्बी यह जो कातर कतारें है
बेबस चेहरे देख आह भी ठंडी हो गई

चीखकर मांग रहे हैं हिसाब गरीब का
पसीने की कमाई भी अब रद्दी हो गई

कोसती थी एक दूसरे को हर आंख
सुना है नेताऔं मे रजामंदी हो गई

क्यों ? दिखता नहीं दर्द रहनुमाओं को
लाचार को हराने सियायत अंधी हो गई

28 नव॰ 2016

अंधेरा क्यों है

सोने की चिड़ीया से मुल्क में अंधेरा क्यों है
इस  दौर में भी  काला इतना सवेरा क्यों है

दिखती है अब हर शय में खौफ की आहट
सवेरा है मगर फिर भी घना अंधेरा क्यों है

माना की हर फैसले से वास्ता नहीं तेरा
मगर फिर भी हर फैसला तेरा क्यों है !

अजीब सवाल पूछ रह है निशब्द परिंदों से
इस दौर में बिजली के तार पर बसेरा क्यों है।