8 मई 2020


सर पर गठरी
गठरी में रोटी

साथ में बच्चे
खोफ का साया
भूख के मारे वो चले जा रहे थे
खुद में पांवों पर था यकीन

सर पर गठरी
गठरी में रोटी

क्या लेकर जा रहे थे
क्या लेकर आए थे
टूटी चप्पल दो जोड़ी कपड़े
कौन थे वो हिन्दुस्तानी ?

सर पर गठरी
गठरी में रोटी

रुकिए रुकिए कहानी भी खत्म नहीं हुई है. 

सर पर गठरी
गठरी में रोटी

उम्मीदों की काली रात
भूख लगी तो होगी
कुछ देर और चलेंगे
फिर खा लेंगे जो कुछ है

सर पर गठरी
गठरी में रोटी

कोई तो मिला होगा
पूछा होगा
कौन हो कहां से चले आ रहे हो
ओह हां मजदूर हो .

सर पर गठरी
गठरी में रोटी

थक गए होंगे
उतार कर गठरी
कुछ देर लेट गए 
नींद ने घेर लिया थकन थी

फिर क्या ...?

फिर नींद खुली तो
नींद खुली ही नहीं
एक रेल आई शायद उसमें रोटियां थी
आई और लेकर गुजर गई

गठरी इधर बिखरी पड़ी थी
रोटियां उधर बिखर गई 

अब आगे क्या .??

जहीलों ने कहा
पटरी पर क्यों सोए
घर में रहते
जी घर ही तो जा रहे थे रहने को

फिर गठरी समेट ली
रोटियां तस्वीरों में आ गए गई
लेकिन कौन थे
अरे हां याद आया मजदूर थे..☹️☹️


15 सित॰ 2019

एक अजीब सा डर है


अजीब सा डर है
हर नुक्कड़ पर
पुलिस का पहरा है
भीड़ का सैलाब 
चारो ओर  फिर भी ना जाने क्यों
एक अजीब सा डर है
कौन कहां से
आयेगा
और पूछेगा कौन हो तुम
क्या जवाब दूंगा
मुस्लिम हूं  दलित हूं  
कोन हूं
आखिर क्या बताऊं
अपनी पहचान
कैसे बताऊं कौन हूं 
एक अजीब सा डर है
क्या कहूंगा 
हिन्दुस्तानी हूं
नहीं नहीं 
वो नहीं समझेंगे
फिर क्या कहूं
इंसान हूं ?
लेकिन वो तो भेड़िए है
इंसान होते तो
पूछते ही नहीं
फिर क्या बताऊं
बस  एक अजीब सा डर है
आखिर क्यों है 
क्या कोई बोलेगा ?
क्या इंसाफ नहीं मिलेगा ?
नहीं नहीं ..
इंसाफ पर तो भरोसा है
लेकिन अगर
भीड़ ने मार दिया तो
फिर क्या करूंगा इंसाफ का
भीड़ है
उसी भीड़ में
मैं भी शामिल हूं
लेकिन फिर भी
एक अजीब सा डर है

12 सित॰ 2019

मेरा शरारती बच्चा

भी मैं घर जाता 
गिरता पड़ता वो
दौड़कर गले लग जाता
फिर अचानक
ना जाने क्यों रूठ जाता है
मनाने पर कहता
पहले मेरे साथ चलो
एक खिलौना आया है
मैं क्या करता
मना भी तो नहीं कर सकता ना....

सोता था तो
उसको शरारत सूझती थी
फिर
एक दीवार के सहारे
गंदे पैर लेकर
वो पीठ पर चढ़ जाता
मुझे पता था
सफेद शर्ट पर दाग लगेंगे लेकिन
मैं क्या करता
मना भी तो नहीं कर सकता ना....

स्कूल जाता तो
रोज एक नया बहाना होता
पेट दुखता है उसका
स्कूल की गाड़ी निकल जाने तक
फिर उधम मचाता था
कहता है
पापा... अब पेट ठीक हो गया
मैं खेलने जाऊं
मैं क्या करता ..
मना भी तो नहीं कर सकता ना.....

स्कूल से आकर
दिखाने को वो
बस्ता खोल बैठ जाता है
पलटता है कापी के पन्ने
कभी छीलता है
कच्ची पेंसिल की नोक
फिर आवाजें सुनकर बच्चो की
धड़ाम से बन्द करके बस्ता
हो गया होमवर्क
पापा .... अब मैं खेलने जाऊं
मैं क्या करता 
मना भी नहीं कर सकता ना

फिर कभी कीचड़ में
कभी मिट्टी में लथपथ
कपड़े लेकर घर आता तो
मम्मी का गुस्सा
आसमान चढ़ जाता है
लेकिन उसको काहे का डर
आपने ही बिगाड़ा है
यह ताना तो मुझको सुनना है
वो कहता है
पापा..देखो ना अब खेलने भी नहीं देती
मैं ..क्या करता
मम्मी से पिटने भी तो नहीं देता ना ....

3 मार्च 2019

हिज्र


लिहाफों में बहाता रहा अश्क गम-ए-हिज्र के
फिर सब भूल गया ऐसी थी फज्र की कशिश,


जमील MJ




28 फ़र॰ 2019

हमसाया

कल तक थी इल्तिज़ा तूं रहम कर
मगर तेरा लहज़ा है की मैं डर गया हूं..!!
 
अदावतें पुरानी है यह चलती रहेगी 
बस जुल्मों के दर्द से बिखर गया हूं..!!
 
चारों तरफ बस एक ही शोर है बरपा 
अब कैसे में अचानक से सुधर गया हूं..!!
 
बुरा ही सही मगर रहूंगा तेरा हमसाया
मैं भी किसी ज़माने में तेरे घर गया हूं ..!!